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"पिंजड़ा "

  • Writer: Arti Shrivastava
    Arti Shrivastava
  • Jun 4, 2020
  • 4 min read

जब भी सुबह मेरी आँख खुलती, तो सामने वाले घर की खिड़की पर मेरी नज़र जाती। उस खिड़की में लगे पिंजड़े में तोते को देख मन ख़ुशी से झूम उठता। पिंजड़े के आस पास कुछ और तोते उछल कूद करते रहते। उनकी मीठी आवाज से पूरा शरीर स्फूर्ति से भर जाता। मैं चहक कर अपने बेटे से कहती, "देखो तोता कैसे फुदक रहा है। उसकी राम-राम की रट कितनी प्यारी लगती है।"


"हाँ माँ सच ! कितना प्यारा तोता है, बिलकुल हमारे सफेदी की तरह। "सफेदी" मेरा प्यारा कबूतर। काश ! हमने इसी तरह उसे अपने साथ रख लिया होता।"


मैं अतीत की यादों में खो गई। तब हम जमशेदपुर में रहते थे। बच्चे अपनी बोर्ड परीक्षा के साथ-साथ प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में व्यस्त थे।


पता नहीं कहाँ से घर में एक सफेद कबूतर लगातार आने लगा। मैं प्यार से उसे दाना खिलाती। बच्चे भी बहुत खुश हो जाते थे उसे देख कर। धीरे-धीरे वो हमसे इतना घुल-मिल गया कि लगता मानो इस घर का ही एक सदस्य हो।


बच्चों के अध्ययनकक्ष की खिड़की पर घंटों बैठा रहता। मानो बच्चों की निगरानी एक अभिभावक की भाँति कर रहा हो। नित्य सुबह सही वक़्त पर घर में उसका आना बहुत सुकून देता था। वो तो हमारे घर में आकर अपनी उड़ान ही भूल जाता। हमारे तरह ही चल-चल कर एक कमरे से दूसरे कमरे तक जाता।


वो हमारे घर का एक महत्वपूर्ण सदस्य बन गया था। कभी बच्चों की दादी की हथेली पर बैठता, तो कभी सोफे पर। घर मेरा खुशियों से गुलजार रहता। हर पल बच्चों के साथ एक साये की तरह था वो। उसे देख कर बच्चों के पापा का अलग शहर में रहने का दबाव मैं कुछ समय के लिए भूल ही जाती थी।


उस सुबह मैंने अपनी कामवाली भारती को जल्दी काम पे बुलाया था। दरअसल मेरे बेटे को इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए सूरतकल जाना था। हम सब उसके जाने की तैयारी में लगे थे। पिछली शाम भारती भी बहुत परेशान थी "क्या चीकू को इतनी दूर भेजना जरुरी था? " वो रो रही थी मेरे बेटे से लिपटकर। दुःख तो हमें भी हो रहा था। वो हमसे बहुत दूर जा रहा था। परन्तु मन में कहीं न कहीं एक उत्साह था, अच्छे कॉलेज में उसे प्रवेश जो मिल गया था।


अचानक भारती ने कहा "आपका सफेदी कहीं दिखाई नहीं दे रहा है? उसके खाने का कटोरा भी भरा पड़ा है।" "अरे हाँ !" मैने थोड़ा परेशान होते हुए कहा "आज सुबह से वो दिखाई भी नहीं दिया है। " मेरे बच्चे सफेदी को ढूंढने लगे।


तभी भारती बोल पड़ी, "देखिये ! आपका सफेदी तो लगता है पूरी फौज ले कर आया है। ये लोग भी चीकू के जाने से उदास हैं। ये अपना खाना भी नहीं खा रहे हैं।" हम सब खिड़की की तरफ दौड़े और बाहर की ओर देखने लगे। सामने की छत पर अनगिनत कबूतरों के बीच सफेदी बैठा था। बस एक टक हमारे घर को निहार रहा था।


बच्चे उसे बुला रहे थे, "आओ न सफेदी घर में तो आओ।" वो नहीं आया। लग रहा था जैसे चीकू के दूर जाने का दुःख वो झेल नहीं पा रहा था।


हम सब चीकू को विदा करने स्टेशन जा रहे थे। दादा-दादी, छोटे पापा-छोटी मम्मी, दीदी, छोटे भाई सब रो रहे थे। चीकू बुत बना सबको निहार रहा था; बस दिखा नहीं तो सिर्फ हमारा सफेदी। रुंधे गले से मेरे बेटे ने सिर्फ इतना कहा, "सफेदी का ध्यान रखना माँ। "


चीकू चला गया; हमने फिर कभी नहीं देखा सफेदी को। लगता है चीकू का अभिभावक बन पीछे-पीछे वो भी सूरतकल चला गया।


आज बहुत दिनों से देश में लॉकडाउन है। कोरोना वायरस ने इंसान को घर में कैद होने पर मजबूर कर दिया है। मैं भी मुंबई में अपने बेटे के पास लॉकडाउन में फंस गई हूँ। मेरा बेटा इसी शहर में नौकरी करता है। दो कमरों के इस घर में मुझे बालकनी की कमी महसूस होती है। वैसे मुंबई जैसे शहर के लिए ये बहुत बड़ा घर है। यहाँ हम सिर्फ तीन ही लोग हैं ,परन्तु इस वायरस ने हम सबकी आजादी छीन ली है। लगता है जैसे हम एक कैद में जी रहे हैं।


मुझे याद है कि मैंने अपने बड़े भैया से एक बार पूछा था, "जेल के अंदर कैसा महसूस होता है?" दरअसल भैया जे.पी. आंदोलन के एक सक्रिय सदस्य थे। जेल भरो अभियान में उन्हें बच्चा कह कर जेल के अंदर तो नहीं जाने दिया गया था, परन्तु उनके कुछ दोस्त जेल जरूर गये थे। उन्होंने मुझे बताया था "देखो जेल एक ऐसी जगह है जहाँ तुम्हे बाहरी आवाजें सुनाई तो देती हैं, परन्तु तुम उन्हें देख नहीं सकते। जैसे कि कोई बारात सामने से जा रही है। बैंड बाजे की आवाज कानो में पड़ रही हैं। किन्तु, तुम्हे पता नहीं होता कि दूल्हा घोड़े पर या रथ पर सवार है अथवा गाड़ी में बैठा है। तुम सिर्फ महसूस ही कर सकते हो।"


आज सुबह फिर से मैं उस तोते की आवाज सुन रही हूँ। मन में न कोई ख़ुशी है और न हीं उत्साह। लॉकडाउन ने मुझे इतना तो सिखा ही दिया है कि कैद किसी को भी नहीं पसंद। हालाँकि ये पाबन्दी हमारी बेहतरी के लिए है। हम फिर से उन्मुक्त विचरण करेंगें। परन्तु उस तोते का क्या?


अचानक मुझे लगने लगा है, जैसे तोता सारा दिन कराहता रहता है, अपनी आजादी के लिए। उसकी मीठी आवाज़ अब मुझे बेचैन कर देती है। वो इतने छोटे पिंजड़े में कैसे रह पाता है? क्या वे अन्य तोते उसकी आज़ादी की मिन्नतें करते हैं?


मेरे मन में बार-बार यह सवाल उठता है, "अपने मनोरंजन के लिए पक्षियों को कैद करना कैसी मानवता है? कैद तो किसी सजा के लिए दी जाती है। आज़ादी का जश्न मानाने वाले हम मनुष्य, किसी मूक प्राणी के साथ ऐसी बर्बरता कैसे कर सकते है? "


सच ! "पिंजड़ा" तो आखिर पिंजड़ा ही है, चाहे वो सोने का ही क्यो ना बना हो। आज मुझे इस बात का संतोष है कि हमने कभी सफेदी को अपनी ख़ुशी के लिए पिंजड़े में कैद नहीं किया। भले ही वो हमारी नजरों से ओझल है, परन्तु अपनी उड़ान तो कभी न भूल पाया होगा।





 
 
 

2 Comments


Arti Shrivastava
Arti Shrivastava
Jul 04, 2020

😄

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ranjanayush2107
Jun 30, 2020

😃👌👍

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