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"क्या आप आज़ाद हैं?"

  • Writer: Arti Shrivastava
    Arti Shrivastava
  • Aug 14, 2020
  • 4 min read

Updated: Aug 15, 2020

स्वतंत्रता अर्थात आज़ादी किसे अच्छी नहीं लगती। हम मानव हो या पशु-पंक्षी आज़ाद रहना सबको पसंद होता है। परतंत्रता की बेड़ी में जकड़ना किसी को भी अच्छा नहीं लगता। उम्र के इस पड़ाव पर मुझे स्वतंत्रता का मतलब तो भली-भांति समझ आ हीं गया है। रहा सहा कसर लॉकडाउन में रहकर पूरा हो गया। पाबन्दी क्या होती है? इसका अर्थ अब पूरा-पूरा समझ पाई हूँ। बचपन से 15 अगस्त हो या 26 जनवरी, घर में एक जश्न जैसा माहौल रहता था। जलेबी, कचौरी, पुए, पकवान, आदि से स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस का स्वागत किया जाता था। हम बच्चे सुबह-सुबह तैयार हो कर विद्यालय जाते थे। वहाँ भी हमें ध्वजारोहण के बाद जलेबियाँ व मिठाइयाँ खाने को मिलती थीं। इतने के बावजूद हमें चैन कहाँ, पापा या बड़े भैया के साथ गाँधी मैदान जाती। गुब्बारे या बगैर खिलौने के हम खाली हाँथ कभी घर नहीं लौटते थे। हमारे लिये तो पंद्रह अगस्त का यही मतलब था, अपने मन का करना या खुश रहना। 26 जनवरी भी यही अहसास दिलाता था कि बस खुशियाँ बरसती रहें।


Pic Credit : parentcircle.com


इसी तरह धीरे-धीरे समय गुजरता गया। मैंने अपनी किताबों में 15 अगस्त के बारे में पढ़ा था। मुझे यह जानकर काफी आश्चर्य हुआ कि हमारा देश अंग्रेजो के अधीन था। हम भारतवासी गुलामी के जंजीरों में जकड़े हुए थे। वे कैसे अपना साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे। देशवासियों पर वे लोग कैसे-कैसे ज़ुल्म ढाते थे। हमारी हीं मिट्टी हमारे अधिकार के बदले हमसे लगाना वसूला करते थे। कितने हीं वीर सपूतों कि शहादत के बाद हमने आजादी पाई। इसी 15 अगस्त के दिन आसमान में भारतवर्ष का झंडा लहराया था। हम उस दिन अंग्रेज़ों के चंगुल से आज़ाद हुए थे।


वैसे इन सब बातों को मैं ठीक से समझ नहीं पाई थी। मैं तब बहुत छोटी थी। दरअसल किताब में छपे लेख के बदौलत मुझे सिर्फ स्वतंत्रता दिवस के बारे में सिर्फ मौखिक ज्ञान हीं हासिल हुआ था। मैं अबतक अनजान थी कि कोई किसी का गुलाम कैसे हो सकता है? मेरा बाल-मन गुलामी, परतंत्रता, आदि का मतलब ठीक से समझ नहीं पाता था।


एक दिन मैं अपनी सहेली सिम्मी का इंतजार कर रही थी। वो मेरी पक्की सहेली थी। उसके साथ विद्यालय जाना, खेलना-कूदना मुझे बहुत अच्छा लगता था। बस एक हीं दिक्कत थी कि वो अपने पिताजी के बाहर जाने का इंतज़ार करती। उसके बाद हीं हम मिल पाते थे। उसे अपने पिताजी से छुपकर दोस्तों के साथ खेलना-कूदना पड़ता था। अगर उसके पिताजी कभी अचानक आ भी जाएँ तो दौड़ कर घर भाग जाती, नहीं तो उसे खूब डांट पड़ती। मैंने मायूस होकर एक बार अपनी दादी से पूछा, "दादी सिम्मी को उसके पापा के सामने क्यों नहीं खेलने दिया जाता?" दादी सहज़ भाव से कहती "उसके पापा जो कहते हैं, अपनी बेटी की भलाई के लिए हीं करते होंगे।" मैं दादी के जवाब से संतुष्ट नहीं थी। अपने मन का नहीं करना, इसमें किसी का क्या भला होता होगा। मेरे बाल-मन ने इसी बात को गुलामी का नाम दे दिया।


वो पंद्रह अगस्त का दिन था। मैं विद्यालय से घर लौटी थी। अम्मा आंगन में हमारे पालतू तोते को नहला रही थीं। सामने तोते को देख मेरी सारी थकान जाती रही। मैंने तोते को पुचकारा "मिट्ठू-मिट्ठू"। वो भी जवाब में सीता-राम, सीता-राम बोल पड़ा। अचानक अम्मा ने पिंजड़े से तोते को निकाल कर हवा में उछाल दिया। वो बोल पड़ी, "जाओ ! आजादी के दिन तुम भी आज़ाद हो जाओ।" मैंने तोते की उन्मुक्त उड़ान को बहुत नजदीक से महसूस किया। उस दिन हम सब तोते के लिए बहुत उदास थे। हमें उसकी आदत सी हो गई थी। अम्मा ने हमें समझाया "भले हीं हमलोग तोते को कितना प्यार करते थे, परन्तु वो अपनी उड़ान भूलकर पिंजड़ा में बन्द हीं तो था। आज़ाद फिरने का हक़ उसे भी था। "



अब मेरे लिए आजादी का मायने कुछ स्पष्ट सा हो गया था। बदलते समय के साथ मैं ब्याह कर ससुराल आ गई। बड़े अरमान से मैंने मायके की दहलीज़ को लांघकर ससुराल में अपना पहला कदम रखा। समय था गृहप्रवेश के रस्म का। हमारे यहाँ वर-वधू को दौरा (बाँस की बड़ी सी टोकरी) में पाँव रखते हुए घर के अन्दर प्रवेश कराया जाता है। ज्योंही दौरा में पहला पैर रखा, किसी ने मेरे घूँघट को काफी नीचे तक खींच दिया। मैं गिरते-गिरते बची। ये था मेरा ससुराल से प्रथम परिचय। रस्म पूरी होने के उपरांत मेरी सासू माँ पास आकर बोलीं "नई बहू को धीरे-धीरे चलना, बोलना, व हॅसना भी धीमे-धीमे चाहिए।" मैंने सहमति में अपना सिर हिलाया। कुछ दिन साथ रहकर पति भी पटना लौट गये। मैं उनसे अलग अपने ससुराल में थी। नित नई पाबंदियाँ, नई नसीहतों से मैं घबरा सी गई थी। मैं अब ज्यादा चुप-चुप रहने लगी थी।


कुछ दिनों के बाद जब पहली बार भाई व पापा मुझे लेने आए तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। ज्योंही ससुराल से निकल कर ट्रेन में बैठी, लगा जैसे खुली हवा में साँस ले पा रही हूँ। जब मैं मायके पहुँची, तो मन नई उमंग व नए उत्साह से झूम उठा। इतनी पाबंदियों के बाद ससुराल से मायके तक की दूरी मुझे भली-भाँति अपने मन की आजादी व स्वतंत्रता का मोल समझा गई।


आज फिर से स्वतंत्रता दिवस हमारे चौखट पर खड़ी है। कोरोना के चंगुल में कैद, हम सब फिर से खुली हवा में साँस लेने को तरस रहे हैं। आज आजादी के मायने और साफ होते जा रहे हैं।


परन्तु क्या आजादी सिर्फ अपने मन-मुताबिक काम करने की छूट है? क्या वह बच्चा आज़ाद है जो अपने पसंद के विषय को नहीं पढ़ पाया? क्या वह गृहणि आज़ाद है जो चूल्हे के धुंए में अपने सपनों को जलता देख रही है? क्या वह पंछी आज़ाद है जो पिजड़े से आपका दिल बहलाता है? क्या आप आज़ाद हैं?


Pic Credit: freepik.com




 
 
 

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