तब तक दशहरे का रावण वापस आता रहेगा
- Arti Shrivastava
- Oct 25, 2020
- 3 min read
चाय की चुस्कियाँ लेती सुप्रिया बालकनी में पुनीत के साथ बैठी थी। अक्टूबर की हल्की ठंढ और बेमौसम बारिश में पकौड़े और भी मज़ेदार लग रहे थे। तभी दरवाज़े की घंटी ने उस सुहावने वातावरण में डूबी सुप्रिया की तन्द्रा भंग की। पाँच वर्षीय राशि ने दौड़कर दरवाज़ा खोला। "बोरवंकर आंटी आई हैं ", राशि ने वहीं से आवाज़ लगाई।
सुप्रिया की भौहें सिकुड़ गईं। उसके मन से चाय की प्याली को खुद से दूर कर वो दरवाज़े की तरफ बढ़ी। "आज कन्या पूजन कार्यक्रम है हमारे घर। राशि को लेकर ज़रूर आईयेगा। " कहकर वो झट से चली पड़ी।
"जिस तेजी से उन्होंने घंटी बजाई बजाई थी, मुझे तो लगा कि आज कयामत हीं आ गई ", सुप्रिया ने हँसते हुए पुनीत से कहा। "राशि को वहाँ लेकर जाओगी क्या? " पुनीत ने गंभीर होते हुए पूछा।
सुप्रिया के चेहरे से मानो हँसी हीं गायब हो गई। तीन दिन पहले हुआ वाकया उसके को फिर से झकझोर गया। दरअसल बोरवंकर जी के घर में अकसर क्लेश होता था, परन्तु जब से लोगों पर लॉकडाउन की मार पड़ी, तब से हद हीं हो गई थी। आये दिन घर से झगडे की आवाज़ें आतीं। तीन दिन पहले बोरवंकर जी की पोती की चीखें सुनाई दे रही थी, "मम्मी को मत मारो ! छोड़ दो!" सुप्रिया से तब रहा नहीं गया था। मोहल्ले की कुछ महिलाओं के साथ वो हस्तछेप करने गई थी। वो सुप्रिया की मधु से पहली मुलाकात थी। आज तक जिसकी सिर्फ चीखें सुनी थी अब उसे एक चेहरा मिल गया था। परन्तु विडंबना यही थी कि लोगों के सामने मधु अपने पति का हीं पक्ष लेने लगी। अतः सब ने उसे उसी के हाल पर छोड़ना मुनासिब समझा।
"अब न्योता आया है ठुकरा भी तो नहीं सकते", सुप्रिया ने भारी मन से कहा।
अगली सुबह सुप्रिया राशि को लेकर बोरवंकर जी के घर पहुँची। पता नहीं ये हवन का धुआँ था या उस घर के अन्दर का तनाव जो सुप्रिया को घुटन का अनुभव करा रहा था। मधु आज रसोईघर घर में व्यस्त थी। पितृसत्ता समाज के बोझ तले दबी नकली मुस्कान को सुप्रिया भली-भाँति समझती थी।
थालियाँ सज चुकी थीं। राशि अपने दोस्तों के साथ मग्न थी। खुद कि पूजा होते देख वो काफी रोमांचित थी। तभी सुप्रिया की नज़र रसोईघर के दरवाज़े पर खड़ी एक किशोरी पर पड़ी। उसकी अधीन मुद्रा और साधारण कपड़ों से प्रतीत होता था कि वो वहाँ की नौकरानी थी। सुप्रिया एक टक से उसे हीं निहारने लगी। ललाट से टपकते पसीने और सिर पर सिकुड़न की उभरती रेखाएं मानो उसका दर्द बयाँ कर रही हो।

सुप्रिया की आँखो में फिर से बचपन की वो याद उतर आई। दुर्गा पूजा के पंडाल में मूर्तियों को देख उसने अपने पापा से पूछा, "ये शेर वाली आंटी उस मूछ वाले अंकल को क्यों मार रही?" पापा ने हंसकर उसके बालों में हाथ फेरा और कहा, "ये माँ दुर्गा हैं। सारे दुष्टों का नाश करने वाली। संपूर्ण मानवजाति की रक्षा करती हैं ये।"
आज भी कुछ देवियां सुप्रिया की आँखों के सामने थीं। परन्तु क्या मानवजाति खुद अपनी रक्षक, अपनी पालनहार की क़द्र करता है? दशहरे पर मिसेस बोरवंकर तो बेहद ख़ुशी से रावण को जलता देखेंगी, परन्तु क्या अपने अंदर के रावण का कभी नाश करेंगी?
हम साल में चाँद दिन "महिला दिवस" या "मातृ दिवस" मनाकर खुद को अपनी ज़िम्मेदारियों में पूर्ण समझते हैं, लेकिन जब तक समाज की आधी आबादी को उपयुक्त सम्मान व आज़ादी नहीं मिलती, तब तक दशहरे का रावण वापस आता रहेगा।

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