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"पत्थर"

  • Writer: Arti Shrivastava
    Arti Shrivastava
  • Apr 22, 2020
  • 4 min read

Updated: Apr 23, 2020

बात उन दिनों की है, जब मेरे पिताजी विद्यार्थी थे। उस समय वे अपनी छुट्टियां बिताने अपने चाचाजी के घर बनारस गए हुए थे। उनके चाचाजी रेलवे में नौकरी करते थे। चाचाजी के परिवार में चाचीजी एवं उनके तीन बच्चे भी थे। वे सभी पिताजी से बहुत प्यार करते थे। उनका घर प्रसिद्ध संकट-मोचन हनुमान मंदिर के समीप ही था। एक दिन की बात है, जब चाचाजी शाम में अपने दफ्तर से घर लौटे, उन्होंने पिताजी से पूछा "मंदिर इतना पास है, उसकी इतनी महत्ता है, तुम कभी प्रभु दर्शन के लिए क्यों नहीं चले जाते ?" "अच्छा चला जाऊंगा", मेरे पिताजी ने अनमने ढंग से जवाब दिया । दरअसल बात यह थी कि पिताजी को शुरू से पूजा-पाठ में उतना विश्वास नहीं था। वे अपने कर्म पर ज्यादा विश्वास किया करते थे।ऐसा नहीं था कि वे नास्तिक थे, परन्तु उनका ऐसा मानना था कि "मनुष्य अपने कर्मों के द्वारा स्वयं अपने भाग्य को बदल सकता है"। अब चाचा जी ने कहा था कि मंदिर जाना है, तो पिताजी को उनके आदेश का पालन करना ही पड़ा। वो शाम में भगवान के दर्शन के लिए संकट-मोचन मंदिर चले गए। शाम ढलने तक पिताजी घर वापस आ गए। जब उनके चाचाजी को यह बात पता चली तो उन्होंने खुश होते हुए पिताजी से पूछा, "बेटा मंदिर हो आए?" चाचाजी काफी प्रसन्न लग रहे थे, परंतु पिताजी थोड़े से गंभीर थे। उनके चाचाजी ने आश्चर्य से पूछा "क्या हुआ बेटा? वहां जाकर तुम्हें अच्छा नहीं लगा?" इस बार पिताजी ने थोड़ा खीजते हुए कहा कि "हां गया तो था, परंतु मेरे पॉकेट में कुल जमा 20 रुपए थे। वह भी वहां गवाँ आया।" किसी ने उनकी जेब काट ली थी। पिताजी बोले, "मैं तो पहले ही कहा करता था कि उस पत्थर की मूरत में ऐसा क्या रखा है की उसे लोग पूजते हैं? ऐसा ईश्वर जो अपने भक्त का नुकसान करा दे उस पर भरोसा करने का क्या फायदा?" उनके चाचाजी शांत भाव से पिताजी की सारी बातें सुन रहे थे। उन्हें भी जान कर अच्छा नहीं लग रहा था कि पिताजी के 20 रुपए किसी ने निकाल लिए। उस समय इतने ही रुपयों का बहुत मोल था। उन्होंने पिताजी से कहा कि "दुखी मत हो बेटा। कल तुम फिर से मंदिर जाओ, तुम्हारे पैसे ज़रूर मिल जाएंगे।" पिताजी का मन तो नहीं हो रहा था, परंतु पैसे के मोह में, कि शायद उनके पैसे चाचाजी के कहे अनुसार मंदिर फिर चले जाने से मिल जाएंगे; वे शाम में फिर से मंदिर की ओर चले। वे यह सोचते हुए जा रहे थे कि लोग इतना अंध-विश्वास क्यों करते हैं? भला खोया हुआ पैसा भी कभी मिल सकता है? वह अपने ही विचारों में खोए हुए आगे की ओर बढ़ रहे थे। अचानक उनकी आंखों में चमक आ गई । सहसा उन्हें अपनी आंखों पर भरोसा ही नहीं हो रहा था। वही उनके सामने मंदिर की सीढ़ियों पर उनके 20 रुपए पड़े हुए थे। मंदिर में थोड़ी भीड़-भाड़ भी थी, परंतु किसी ने शायद उन रुपयों को देखा ही नहीं था । पिताजी उन रुपयों को पाकर बहुत प्रसन्न हो गए थे । उन्होंने उन रुपयों को जेब में भरते हुए भगवान का शुक्रिया अदा किया और वापस घर आ गए। शाम में जब उनके चाचाजी दफ्तर से घर आए तब उन्होंने पिताजी को बहुत खुश पाया । उन्होंने तपाक से पूछा "पैसे मिल गए ना तुम्हारे?" पिताजी ने मुस्कुरा कर कहा कि "हाँ! मिल गए पैसे।" चाचाजी ने कहा "देखो मैंने कहा था ना तुम्हारे पैसे तुम्हें जरूर मिल जाएंगे। अब खुश हो ना? अब तुम्हें पता चल गया ना कि उस पत्थर की मूर्ति में कितनी शक्ति है। बजरंगबली तो चिरंजीवी हैं, वह यहां धरती पर आज भी विद्यमान हैं।" पिताजी के चेहरे पर संतोष के भाव स्पष्ट नज़र आ रहा था। मुझे पिताजी ने यह किस्सा मेरे बचपन में बताया था।मुझे कौतुहल हुआ की चाचाजी को पैसे मिलने का यकीन कैसे था? पिताजी तो इतने विचारशील थे, फिर वे वापस मंदिर क्यों गए? फिर पिताजी ने बताया की वे पैसे तो कही भी मिल सकते थे, परन्तु कोशिश करने की प्रेरणा ज़रूरी थी। तब से पिताजी को बजरंगबली पर विश्वास हो गया। वो बजरंगबली जो सिर्फ एक पत्थर नहीं थे, बल्कि मुश्किल की घड़ी में अपनी शक्तियों का स्मरण करके पहाड़ उठाने वाले प्रेरणा स्त्रोत थे। हाँ बात यह नहीं कि कोई चमत्कार हो गया था । उनका मंदिर जाना जीवन में अथक प्रयत्न करते रहने की ओर इंगित करता है। सफलता की निश्चितता ही ज़िदगी की सबसे बड़ी अनिश्चितता है। ऐसा संभव है की हम विफलताओं से हार मानकर खुद की परिस्थितियों से समझौता कर ले, परन्तु ऐसे समय में ही हमे चाचाजी जैसे बड़ो की ज़रुरत होती है जो हमे फिर से जूझने की हिम्मत देते है। महाभारत में अर्जुन के लिए कृष्ण ने यह कार्य किया, पिताजी के लिए उनके चाचाजी ने, और संभवतः आपके लिए किसी और ने। सच्चाई तो यह है कि हमें अपने सद्कर्मो पर पत्थर की भांति अडिग रहकर विश्वास से डटे रहने की आवश्यकता है। जीवन में अगर सब कुछ ठीक करना है, तो हमें कठोर नियमों का पालन खुद के लिए करना होगा। अगर हम गिरकर फिसल गए तो हमारा उत्थान रुक जाएगा। हमारी मेहनत और लगन से ही सदा चमत्कार होते हैं। मंदिर, मस्जिद और गुरूद्वारे मालिक तेरे रूप बहुतेरे। वेद, कुरान, बाइबिल और गीता करते सदा पथ प्रदर्शित हमारे।। गर कोशिश हमारी सच्ची हो। कर्त्तव्य हमारे अच्छे हों।। अथक प्रयास से तुम विवश हो जाते। "पत्थर" में भी होते प्रभु दरस तिहारे।।

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