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"मेरे बच्चे से जुड़ी पहली यादें चैलेंज-3"

  • Writer: Arti Shrivastava
    Arti Shrivastava
  • Jul 20, 2020
  • 3 min read

Updated: Jul 21, 2020

प्रस्तुत है कड़ी की आखरी कहानी:


बुलबुले


मेरा नौवां महीना चल रहा था। तबियत सुबह से हीं ठीक नहीं लग रही थी। छठ पूजा की संध्या अर्ध्य थी। सासूमाँ बार-बार मेरा हाल-चाल पूछ रहीं थी। उनका मन था कि मैं सब के साथ छठ घाट जाऊं। उन्हें लगता था कि इकलौती बहू है मेरी, तो अर्ध्य देते समय उन्हें सिंदूर मैं भी लगाऊं।


मैंने हिम्मत बटोर कर कहा, "मैं भी जाउँगी छठ-घाट।" हालाँकि मेरे ससुर जी थोड़ा परेशान हो गये थे कि ऐसे हालत में बहू कैसे साथ में जा सकती है। परन्तु मेरी व सासूमाँ के मिलीभगत के आगे सभी ने घुटने टेक दिये।


मैं सब के साथ शाम-घाट के लिए निकल पड़ी। हालांकि पड़ोस वाली भाभी बार-बार पूछ रहीं थीं कि बहू जी का मुँह क्यों सूखा हुआ है? मैं भी झूठी हँसी चेहरे पर लाकर कहती, "नहीं-नहीं मैं ठीक हूँ।" किसी तरह पूजा-पाठ खत्म होने के बाद हम घर लौट आये।


रात के ग्यारह बजे होंगे। मुझे ज्यादा बेचैनी होने लगी। मुझे जल्दी-जल्दी सब अस्पताल लेकर गये। आनन-फानन में डॉक्टर ने मुझे एडमिट कर लिया। ठीक एक बजकर चार मिनट पर मैं एक प्यारे से बच्चे कि माँ बन गई। मेरी बेटी को भी एक छोटा भाई मिल गया।


मुझे और बच्चे को छोड़ कर घर वाले वापस घर लौट गये। उस रात अस्पताल में छः लड़कों का जन्म हुआ था। नर्सों ने उन छः लड़कों को अपने पास रख लिया था। जाड़े की रात थी। मुझे अपने बेटे की काफी फिक्र हो रही थी। जब भी किसी बच्चे के रोने की आवाज मिलती, मैं बाथरूम जाने के बहाने नर्सों के पास जाकर अपने बच्चे को देने की मिन्नतें करती। उनका कहना था "जब इसका बाप-दादा आयेगा हमें बक्शीश देकर अपने बच्चे को लें जायेगा।" मैं मन मसोस कर रह जाती।


किसी तरह बेचैनी में मैंने रात गुजारी। अस्पताल में अब विजिटिंग आवर्स शुरू हो गए थे। आज छठ-पूजा की सुबह-अर्ध्य-पूजा थी। मैं घर वालों का बेसब्री से इंतजार कर रही थी। उन पांचो बच्चों के अभिभावक बारी-बारी से आकर अपने बच्चों को अपने पास ले गये। सिर्फ मेरा बेटा अकेला बच गया था। उसे गोद में लेने के लिए मेरा मन अधीर हो रहा था।


अंततः पौने नौ बजे के आस-पास मेरे घर वालों ने आकर बक्शीश देकर मेरे बेटे को आजाद कराया। तब जाकर कहीं सासूमाँ ने मेरे बेटे को पहली बार मेरी गोद में डाला। मेरी आँखों से अश्रु की धारा बह निकली। मैं पागलों की तरह अपने बेटे को चूम रही थी। मेरे पति पास आकर बोले "तुम्हे हमारा सूरज मुबारक हो। " मैंने भी नाम आँखों से उन्हें धन्यवाद कहा।


देखते-देखते रात हो गई। घर वाले मुझे खाना खिला कर वापस लौट गये। हमारे वार्ड की बत्ती बुझा दी गई। बस हल्की रौशनी वाले बल्ब कमरे में जल रहे थे। सब के सोने का वक़्त हो गया था। सभी सोने की तैयारी में जुट गये थे। मैं भी अपने बेटे को बेड पर सुलाकर सोने हीं जा रही थी, कि अचानक मेरी नजर उसके होठो पर पड़ी। उसके होठो पर थूक भरे बुलबुले नजर आ रहे थे। मेरे तो होश हीं उड़ गये। मैंने अपनी पल्लू से उसके होठ साफ किये। पुनः वैसे हीं बुलबुलों से होठ भर गये। घबराहट के मारे मुँह सूखने लगा। आस-पास नजर दौड़ाई तो देखा सभी लगभग सो गये थे। मेरे बगल वाला बिस्तर खाली पड़ा था। उस पर कोई मरीज़ नहीं था। डर के मारे मेरा बुरा हाल था। बच्चे को गोद में लिये मैं रोये जा रही थी। मैंने बचपन से हीं सुन रखा था, ऐसे बुलबुले किसी भी इंसान के अंत को दर्शाता है।


मैं बुरी तरह से घबराई हुई थी "क्या मेरा बच्चा भी? नहीं-नहीं", मैं मन हीं मन बुदबुदाई। मैं भगवान को याद कर रही थी। प्रभु मेरे बेटे कि रक्षा करें। तभी मेरी नजर एक महिला सफाईकर्मी पर पड़ी। मैंने इशारों से उसे अपने पास बुलाया। मैंने उससे पूछा "बच्चा ऐसा बुलबुला क्यों निकाल रहा है।" वो बोली "घबराने की बात नहीं है सब ठीक है। अभी ड्यूटी वाली दीदी आएंगी तब उनसे पूछा लेना। " अभी तक कोई ड्यूटी वाली दिखाई नहीं दे रही थी। मैंने उस सफाईकर्मी से मिन्नतें कि "कृपया आप मेरे बगल वाले बिस्तर पर सो जाईये। मैं आपको नई साड़ी दूँगी। " वो मुस्कुराई फिर मेरे बगल वाले बिस्तर पर लेट गई। अब बगल में किसी को देख कर मेरी थोड़ी हिम्मत बढ़ी। किसी तरह बेटे को गोद में लिये उस महिला से बातें करते-करते मैने बेचैनी में अपने बेटे के साथ उसकी पहली रात बिताई।


यहाँ समाप्त होती हैं मेरे बच्चों से जुड़ी स्मृतियों की ये कड़ी। आशा करती हूँ की आपने इसका लुत्फ़ उठाया होगा।



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